सागर से गहरा;
हिमालय से ऊंचा;
आकाश से विस्तृत;
कुछ नही.
सिखाया था तुमने.
झूठी थीं तुम.
सागर से गहरी;
हिमालय से ऊंची;
आकाश से विस्तृत;
हो तुम "माँ"..!!
दो दीपक थे तुम्हारे,
वही तुम्हारी दुनिया;
उसमे ही जलती रहीं,
उसमे ही बुझती रहीं, तुम..!
दो पाटों में धुनती रहीं,
दो पाटों में पिसती रहीं, तुम..!
चूल्हे-चिमटे से बल पाती रहीं,
मुझको और ऊपर पहुंचाती रहीं, तुम "माँ"..!
विशुद्ध हो तुम, "माँ"..!!
कुंठा में उँगलियों के स्पर्श सी,
वेदना में आँचल के फर्श सी,
और विजय में सिर्फ मुस्कान हो, तुम..!
स्वयं महादेव् भी अधूरे थे,
और 'अर्धनारीश्वर' में पूर्ण हुए.
संपूर्ण हो,
अखंड हो,
बस एक तुम, "माँ"..!!
सागर से गहरी;
हिमालय से ऊंची;
आकाश से विस्तृत;
हो तुम "माँ"..!!
Saturday, February 20, 2010
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