याद है मुझे;
उस दिन झील के किनारे,
नई धुन बनाई थी मैंने
और सुनाई थी तुमको,
सबसे पहले,
हमेशा की तरह |
मेरे काँधे पे सर रख के कहा था तुमने,
"मुझे भी गिटार सिखाना तुम" |
कोई भूली बात जैसे |
किसी अधूरी कहानी की तरह
ये भी छूट गयी थी पीछे |
जैसे कोई भूली बात |
बिना पलक झपके,
जाने क्या देखती थीं तुम
मेरी उँगलियों में,
जब मैं गिटार बजाता था |
मैं तो खो जाता था किसी और जहाँ में |
मेरी उँगलियों से शायद
तुम भी अपना जहाँ बुन लेती थीं |
फिर बोलती थीं मेरे काँधे पे सर रख के,
"मुझे भी गिटार सिखाना तुम" |
और मैं बोलता,
"ये तो यूँ ही है और वक़्त भी कहाँ है" |
फिर कुछ रुक के ये भी कहा हर दफा मैंने --
"मैं सिखाऊंगा तुम्हे गिटार -- ज़रूर सिखाऊंगा";
और तुम मुस्कुरा के सो जाती थी;
जैसे नहीं निकलना चाहती कभी
मेरी उँगलियों से बुने उस जहाँ से |
वक़्त कम था -- सच में |
पता नहीं कब
रंग - बिरंगी गोलियां आ गयीं अपने जहाँ में,
और उन्ही पे रहने लगीं तुम |
पीले पड़े चेहरे से,
रोम-रोम में बसे दर्द से लड़के,
दवाओं से बोझिल आँखों से भी,
जाने क्या देखती थी तुम
मेरी उँगलियों में;
जब मैं गिटार बजाता था |
हर रात बजाता था मैं,
कोई धुन या कोई गाना |
जिसमे खो के सो जाती थीं तुम;
शाँत सी, सुकून भरी, हर रात |
वहीँ कोने में टिका के गिटार
मैं कहता था तुमसे --
"मैं सिखाऊंगा तुम्हे गिटार -- ज़रूर सिखाऊंगा";
और सो जाता था तुमसे सटके |
एक सुबह उठी नहीं तुम |
शाँत सी, सुकून भरी, सोती सी रही |
मेरी उँगलियों से बुने जहाँ में
सदा के लिए ठहर गयीं तुम |
उस दिन झील के किनारे,
नई धुन बनाई थी मैंने
और सुनाई थी तुमको,
सबसे पहले,
हमेशा की तरह |
मेरे काँधे पे सर रख के कहा था तुमने,
"मुझे भी गिटार सिखाना तुम" |
कोई भूली बात जैसे |
किसी अधूरी कहानी की तरह
ये भी छूट गयी थी पीछे |
जैसे कोई भूली बात |
बिना पलक झपके,
जाने क्या देखती थीं तुम
मेरी उँगलियों में,
जब मैं गिटार बजाता था |
मैं तो खो जाता था किसी और जहाँ में |
मेरी उँगलियों से शायद
तुम भी अपना जहाँ बुन लेती थीं |
फिर बोलती थीं मेरे काँधे पे सर रख के,
"मुझे भी गिटार सिखाना तुम" |
और मैं बोलता,
"ये तो यूँ ही है और वक़्त भी कहाँ है" |
फिर कुछ रुक के ये भी कहा हर दफा मैंने --
"मैं सिखाऊंगा तुम्हे गिटार -- ज़रूर सिखाऊंगा";
और तुम मुस्कुरा के सो जाती थी;
जैसे नहीं निकलना चाहती कभी
मेरी उँगलियों से बुने उस जहाँ से |
वक़्त कम था -- सच में |
पता नहीं कब
रंग - बिरंगी गोलियां आ गयीं अपने जहाँ में,
और उन्ही पे रहने लगीं तुम |
पीले पड़े चेहरे से,
रोम-रोम में बसे दर्द से लड़के,
दवाओं से बोझिल आँखों से भी,
जाने क्या देखती थी तुम
मेरी उँगलियों में;
जब मैं गिटार बजाता था |
हर रात बजाता था मैं,
कोई धुन या कोई गाना |
जिसमे खो के सो जाती थीं तुम;
शाँत सी, सुकून भरी, हर रात |
वहीँ कोने में टिका के गिटार
मैं कहता था तुमसे --
"मैं सिखाऊंगा तुम्हे गिटार -- ज़रूर सिखाऊंगा";
और सो जाता था तुमसे सटके |
एक सुबह उठी नहीं तुम |
शाँत सी, सुकून भरी, सोती सी रही |
मेरी उँगलियों से बुने जहाँ में
सदा के लिए ठहर गयीं तुम |
मेरी धुनों में बसके खोती सी रही |
आज भी वहीं कोने में टिका रखा है गिटार |
धुल से सना हुआ;
जंग भी लग गयी है तारों पे;
मकड़ी के जालों से पकड़ा हुआ
आज भी वहीँ कोने में टिका रखा है गिटार |
जिसे कभी सिखा नहीं पाया मैं तुम्हे |
gr8 wrk bhai...
ReplyDeleteindeed loved ur creation...
i thnk its smewhat inspired by ur roommate..
wo room me sangeet barasta tha...
luvd ur creations s well dost..
ReplyDeleteread a few..read them all soon...!!
Bhai wo to sangeet ka mandir tha..;)
Bahut komal,pyaree rachana!
ReplyDeletebeautiful....
ReplyDeletejust loved ur writing style...
hope u write more often..