Sunday, January 15, 2012

फिर एक दिन...

इस शहर ने जो दिए,
हर दिन नए;
वो नकाब, वो लिबास
यहीं छोड़ के -- घर लौटेगा तू |
अन्जान राहों पे चलता,
थका - हारा - परेशान;
नकाबों - लिबासों
में उलझा हुआ नादान |

खुदको खुदी से ढूँढने;
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |

घंटो - घंटो महफ़िलें सजती थीं;
कूचों में - गलियों में - नुक्कड़ में |
खूब ठिठोली मचती थी;
यारों में - लड़कपन में - हुल्लड़ में |
अब रुकी - फंसी - हंसी में
फंसा हुआ नादान |

उन्ही कमीने दोस्तों पे जान छिड़कने;
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |



देखा था मैंने;
हर शाम सूरज को पिघलते हुए
उसकी आँख में |
फिर चाँदनी बन;
देखा था सूरज को बरसते - उन आँखों से -
शब् में - रात में |
अब क़ैद शाम - रात की यादों में;
छत्तों - दीवारों में क़ैद नादान |

शामों में - बाँहों में - आँखों में - झीलों में,
संग सूरज उतरता देखने;
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |

रात भर धुंए में नाचा,
मस्ताया तू |
शराब के नशे में आराम किया,
सुस्ताया तू |
धुंए में - मदहोशी में
उलझा हुआ नादान |

माँ के आँचल में मासूम नींद सोने;
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |

वो नकाब, वो लिबास
यहीं छोड़ के -- घर लौटेगा तू |
खुद को खुदी से ढूँढने;
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |



3 comments:

  1. घंटो - घंटो महफ़िलें सजती थीं;
    कूचों में - गलियों में - नुक्कड़ में |
    खूब ठिठोली मचती थी;
    यारों में - लड़कपन में - हुल्लड़ में |
    अब रुकी - फंसी - हंसी में
    फंसा हुआ नादान |
    Bahut sundar!
    Bade dino baad aapko dekha blogpe!

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  2. उन्ही कमीने दोस्तों पे जान छिड़कने;
    फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू …

    शामों में - बाँहों में - आँखों में - झीलों में,
    संग सूरज उतरता देखने;
    फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू …

    माँ के आँचल में मासूम नींद सोने;
    फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू …


    वाह! सुंदर कविता है …
    रिषी जी
    अच्छा लगा आपके यहां आ'कर …
    …लेकिन पोस्ट बदलने में कुछ सक्रियता कम नहीं लग रही… ? :)
    शुभकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  3. आपका comment देखना बहुत सुखद था...
    और इसके ज़रिये 'श्स्वरम' तक पहुंचना और भी सुखद और प्रेरणादायी..


    आपकी शिकायत भी दूर करने की कोशिश की है ..
    नयी post 'कश्मकश' भी देखें :)

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