Monday, January 18, 2010

कृष्ण की चेतावनी (रश्मिरथी-३)



राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की अद्वितीय रचना जहाँ वह उस वृत्तान्त का वर्णन करते है जिसमे भगवन दुर्योधन की सभा में युद्ध टालने का अंतिम प्रयास करने जाते हैं. परन्तु दुर्योधन के दुस्साहस से आहात हो वह सभा को अपना विहंगम रूप दिखाते हैं.
दिनकर की लेखनी द्वारा पुनः इस कविता में हिंदी साहित्य का विशुद्ध रूप में उभर के आता है.



वर्षों तक वन में घूम घूम,
बाधा विघ्नों को चूम चूम,
सह धूप घाम पानी पत्थर
पांडव आये कुछ और निखर.
सौभाग्य न सब दिन होता है,
देखें आगे क्या होता है.
मैत्री की राह दिखाने को
सब को सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझाने को
भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आए
पांडव का संदेशा लाये.
दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमें भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पाँच ग्राम
रखो अपनी धरती तमाम.
हम वहीँ खुशी से खायेंगे
परिजन पे असी ना उठाएंगे.
दुर्योधन वह भी दे ना सका.
आशीष समाज की न ले सका.
उलटे हरि को बाँधने चला
जो था असाध्य साधने चला.
जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है.


हरि ने भीषण हुँकार किया
अपना स्वरूप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले
भगवान कुपित हो कर बोले
जंजीर बढ़ा अब साध मुझे
हां हां दुर्योधन बाँध मुझे
ये देख गगन मुझमे लय है
ये देख पवन मुझमे लय है
मुझमे विलीन झनकार सकल
मुझमे लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझमे
संहार झूलता है मुझमे


उदयाचल मेरे दीप्त  भाल
भूमंडल वक्ष स्थल विशाल
भुज परिधि बांध को घेरे हैं
मैनाक  मेरु  पग  मेरे  हैं

दिपते  जो  हैं  नक्षत्र  निकर
सब हैं मेरे मुख के अन्दर
दृग हो तो दृश्य अकाण्ड देख
मुझ में सारा ब्रह्माण्ड देख
चार आचार जीव जग क्षर अक्षर
नश्वर मनुष्य सुर जाती अमर

सत कोटि सूर्य सत कोटि चन्द्र
सत कोटि सरित सर सिन्धु मंडरा
सत कोटि ब्रम्हा विष्णु महेश
सत कोटि जल्पति जिष्णु धनेश
सत कोटि रूद्र सत कोटि काल
सत कोटि दंड धार लोक पाल

ज़ंजीर बढा कर साध इन्हें
हाँ हाँ दुर्योधन बाँध इन्हें
भूतल अटल पाताल देख
गत और अनागत काल देख
ये देख जगत का आदि सृजन
ये देख महाभारत का रन
मृतकों से पटी हुई भू है
पहचान कहाँ इसमें तू है
अंबर का कुंतल जाल देख
पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख
मेरा स्वरूप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं
जिह्वा से काढती ज्वाला सघन
साँसों से पाता जन्म पवन
पर जाती मेरी दृष्टि जिधर
हंसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूंदता हूँ लोचन
छा जाता चारो और मरण
बाँधने मुझे तू आया है
जंजीर बड़ी क्या लाया है
यदि मुझे बांधना चाहे मन
पहले तू बाँध अनंत गगन
सूने को साध ना सकता है
वो मुझे बाँध कब सकता है
हित वचन नहीं तुने माना
मैत्री का मूल्य न पहचाना
तो ले अब मैं भी जाता हूँ
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ
याचना नहीं अब रण होगा
जीवन जय या की मरण होगा
टकरायेंगे नक्षत्र निखर
बरसेगी भू पर वह्नी प्रखर
फन शेषनाग का डोलेगा
विकराल काल मुंह खोलेगा
दुर्योधन रण ऐसा होगा
फिर कभी नहीं जैसा होगा
भाई पर भाई टूटेंगे
विष बाण बूँद से छूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे
वायस शृगाल सुख लूटेंगे
आखिर तू भूशायी होगा
हिंसा का पर्दायी होगा
थी सभा सन्न, सब लोग डरे
चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर न अघाते थे
ध्रीत्रास्त्र विदुर सुख पाते थे
कर जोड़ खरे प्रमुदित निर्भय

दोनों पुकारते थे जय, जय ..

7 comments:

  1. "Rashmirathi" mera behad pasandeeda mahakavy hai!
    Dinkarji kee smrutiko naman!

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  2. बहुत सुंदर रचना है।

    नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ द्वीपांतर परिवार आपका ब्लाग जगत में स्वागत करता है।

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  3. हिंदी ब्लाग लेखन के लिये स्वागत और बधाई । अन्य ब्लागों को भी पढ़ें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देने का कष्ट करें

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  4. aap sabhi ka sahog k liye bhut bhuut dhanyawad....!!

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  5. bhai thodi si chhoot gayi....
    amaratva phoolta hai mujh me sanhaar jhoolta hai mujh me.....
    udayachal mere dipt bhaal
    bhoomandal vaksha sthala vishaal
    bhuj paridhi bandh ko ghere hain
    mainaak meru pag mere hain

    dipte jo hain nakshatra nikar
    sab hain mere mukh ke andar
    drig ho to drishya akaand dekh
    mujh me saara brahmaand dekh
    char achar jeev jag kshar akshar
    nashvar manushya sur jati amar

    sat koti surya sat koti chandra
    sat koti sarit sar sindhu mandra
    sat koti bramha vishnu mahesh
    sat koti jalpati jishnu dhanesh
    sat koti rudra sat koti kaal
    sat koti dand dhar lok paal

    zanjeer badha kar saadh inhe
    haan haan duryodhan baandh inhe

    bhutal atal paataal dekh.......

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  6. rahul bhai....galti maan ke sudhar li hai.....dhanyawaad:)

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