Tuesday, August 21, 2012

मेरे शहर की बारिश...

बारिश अपने पूरे श़बाब पर है और मेरा ख़ूबसूरत शहर पूरी जवानी पे। और ये भी तो नहीं हो सकता की बरसात  यूँ ही बीत जाये और उसपे कुछ न लिखें। बस तो मेरी कोशिश इस खूबसूरत मौसम को अपने  अंदाज़ में सहेजने की....

बारिश में,
मेरे शहर की रौनक ही कुछ और होती है।

जैसे कोई ख़ूबसूरत, जवान लड़की,
सज - सँवर गई है -
सर्दियों की मुँह दिखाई के लिए।
पश्मीने की हरी शॉल -
जिसपे दरवाज़े-मंदिर-मस्जिदों की मीनारें -
ज़रदोज़ी सी लगती हैं-
ओढ़ रक्खी है उसने।
पहन रक्खा है झीलों का हार,
जिसके बीच में वह बड़ी झील 
चमकती है कोहिनूर की तरह।
बेशकीमती है यह नगीना,
बेशकीमती है यह बूँदें, यह बारिश।
जिसमे मेरे शहर की रौनक ही कुछ और होती है।

Friday, July 20, 2012

आनँद - सफ़र

मेरे घर में पुराने ज़माने की रील वाली एक कैसेट थी "आनँद -सफ़र" - साइड A  में 'सफ़र' और साइड B में 'आनँद' । इसमें राजेश खन्ना की इन दो बेहेतरीन फिल्मो के गाने और  हर गाने के बीच इन्ही फिल्मों से अद्भुत डायलोग। ये मेरी पहली मुलाकात थी राजेश खन्ना से। फिर जैसे बड़ा हुआ कुछ फिल्में देखीं और उनकी उस नशीली मुस्कान के जादू से जैसे कोई नहीं बचा मैं भी नहीं बच पाया ।  और 'आनँद' तो किसी भी भाषा, श्रेणी, समय में मेरी सर्वाधिक पसंदीदा दो-तीन फिल्मो में एक है।

इस महानायक की मृत्यु के बाद सचमुच यूँ लगा के कुछ तो कम हो गया इस धरती से। तो मेरी श्रद्धांजलि इस नशीली मुस्कान वाले मोहब्बत के  अमर सौदागर को ... 

कुछ लोग वक़्त की रेत  पर 
पैरों के ऐसे निशान  छोड़ जाते हैं
जो कभी नहीं मिटते ।
'कभी अलविदा न कहना',
ये तुमने ही कहा था ना ?
और कल तुमने ही विदा ले ली !!

पीछे छोड़ गए तुम सब कुछ;
वो हँसी, वो आँखें;
वो बातें, वो यादें;
वो गीत, वो धुन;
और हाँ ! वो पैरों के निशाँ,
जो कभी नहीं मिटेंगे ।

कितने ही लाख दिल तुम्हारी बातों पे धड़के थे;
कितनी अँधेरी ज़िन्दगियों में रौशनी के दो पल छिड़के थे।
तुम्हारी मदभरी मुस्कान में कई करोड़ डूबे थे;
कई करोड़ चेहरे तुम्हारे साथ हँसे थे।

मेरा यकीन करो !
और कई-कई करोड़ आँखें नम हैं आज 
तुम्हारे जाने के बाद।

पर रहोगे सदा तुम-
जब तक ये वक़्त है;
इन्ही अनेकानेक 
आँखों की चमक बनकर,
दिलों की धड़क बनकर,
चेहरे की हंसी, ग़ज़ल बनकर।
क्यूंकि पता है हमें -

'आनँद मरा नहीं,
आनँद कभी मरते नहीं'।



चार पंक्तियाँ उस मनचले आशिक के नाम जो 'ये शाम मस्तानी' में 'रूप तेरा मस्ताना' गुनगुनाते हुए अपने 'सपनो की रानी' को ढूँढता फिरता था...

धरती पे जैसे तारों में ध्रुव थे तुम,
सोचता हूँ,
क्या अब आकाश में भी दो ध्रुव होंगे ?
अब तक अप्सराओं सँग रास रचता रहा,
दिल्लगी करता रहा;
वो पुराना ध्रुव तारा।
उसे अब कोई नया रोज़गार ढूंढ ही लेना चहिए ।।

Friday, June 29, 2012

नमी

कुछ बातें, कुछ रिश्ते, कुछ बौछारें जो हमें इस क़दर तर-बतर कर देती हैं कि  समझ नहीं आता, वो कहाँ और हम कहाँ। कोई फर्क नहीं कर सकता। वो हमसे हैं या हम उनसे कोई समझ नही सकता....

गई रात बहुत गहरी नींद
सोयीं थी तुम ।
जैसे सावन की भीगती हुई,
कजरारी सी शुद्ध सुबह;
वैसी ही निश्छल - साफ - शुद्ध,
सोयीं थी तुम ।
मैं अपनी नींद को मनाता रहा,
मत आना, कहीं ये दृश्य न टूटे ।
और तेरी नींद भी थपकाता रहा,
रह जाना, कहीं ये दृश्य न टूटे ।

फिर एक ख़याल आया
और मेरी नींद उड़ गयी ।

Friday, June 1, 2012

दरख़्त


कुछ बातें, कुछ यादें ऐसी होती हैं जो सदा आपके साथ रहती हैं | भूली, कड़वी या गलती समझ के आप लाख कोशिश करो इनसे पीछा छुड़ाने कि ये दब जाती हैं अन्दर लेकिन मौका पाते ही फ़ौरन सतह पे आ जाती हैं क्यूंकि ये आपकी शख्सियत का एक अभिन्न हिस्सा हैं | और वक़्त के साथ  तो फिदरत बदलती है शख्सियत नही |
हाँ लेकिन वक़्त बदलता है | वक़्त जो किसी का सगा नही, इन यादों का भी नही...

ये गुमाँ न था मुझे 
के अब भी जज़्बात मचलेंगे |
पर सब कुछ जाना - पहचाना सा लगा,
कल जब मेरा गाँव आया |

शीशा नीचे हुआ - जैसे खुद ही;
कुछ धूल और खुशबू भर गयी कार में |
वो महक भी थी जानी - पहचानी सी |
"ड्राईवर, गाड़ी रोको"
बोला मैं और उतरा नीचे |
चारों और थी वही खुशबू;
बरसों से जो महक रही थी मेरे बदन में |
बरसों से जो महक रही थी म्रेरे ज़हन में |

लगा यूँ,
के अरसों बाद भूला कोई
लौट के घर आ गया |

Sunday, April 22, 2012

माशूख़ वतन

प्यार तो प्यार होता है। विद्वानों को समझ नही आया, पंडितों ने हाथ खड़े कर दिए।प्यार तो प्यार होता है। माँ के लिए भी होता है महबूब के लिए भी। प्यार की कोई भाषा, कोई समझ नही होती और कविता का कोई नज़रिया नही होता। बस तो प्यार को एक नए नज़रिए से परोसने की कोशिश की है इधर..


नीली - काली- फैली 
रात की स्याही पे,
कुछ जो बिखरे हैं 
तारों के वो छीटें हैं।
धुंधलाये से लगे सारे
तेरी आँखों के नूर से,
चाशनी भी लगी फीकी 
बस तेरे होंठ मीठे हैं ।

भीगी - काली जुल्फों से 
छिटका जो बूँद - बूँद पानी;
कुछ सांसें उधार लीं मैने
कुछ और जीने की ठानी ।

तेरी मोहब्बत की सलाईयाँ लेकर
कुछ ख्वाब बुने ऊनी ।
तेरी शामों में कूची डुबोकर रंग दीं
अपनी शामें भी महरूनी ।

तेरे इश्क़ से सराबोर
सांसें - मन, मेरा जान-ओ-ज़हन;
ऐ माशूख़ वतन, मेरे माशूख वतन।

Sunday, April 1, 2012

सफ़र


पहले तो क्षमा इसलिए कि एक पुरानी कृति प्रस्तुत की है।कुछ ज्यादा ही पुरानी शायद, आठ साल पहले (जून २००४) में तब लिखी थी जब मेरी आयु लगभग सोलह होगी। 
यूहीं कल कुछ 'बिखरे पन्ने' टटोलते हुए इस से टकरा गया तो लगा कि अगर आज भी ऐसा कुछ लिखता तो तो करीब- करीब यूँ  ही होता । बस तो प्रस्तुत कर दिया यहाँ जो मैं ज़िन्दगी के 'सफ़र' के बारे में सोचता था जीवन  के उन  कुछ  सबसे अनमोल वर्षों में -


सोचता हूँ,
यूँ ही कभी बैठे हुए
झील के किनारे,
लहरों पर नाचती चाँदनी को देखकर,
आते - जाते सावन के बादलों से
पूछता हूँ -

क्या किसी के लिए रुकेगा ये जीवन?

जीवन एक युद्ध है, संघर्ष है;
कोई अड़चन नहीं,
अभी पार होता सहर्ष है ।
मिलेंगे लाखों मीत,
अभी लम्बा बहुत 'सफ़र' है ।

Wednesday, February 22, 2012

कश्मकश

यह प्रयास है उन ख्वाहिशों और हसरतों को समझने का या कह लीजिये समझाने का  - जो ताक़त तो आपकी ज़िन्दगी बदलने की रखते हैं - लेकिन दिल और दिमाग की 'कश्मकश' में अक्सर दम तोड़ देते हैं ।
और प्रयास है उस हौंसले को, उस विश्वास को थामे रहने का जिस से ऐसे कई और सैंकड़ो ख्वाब जन्म लेते हैं और कई और लाखों ज़िंदगियाँ बदल देते हैं।


दिल से दिमाग के दरमयां -
फिर किसी चौराहे पे -
कई ख्वाहिशों का क़त्ल हुआ;
सुना, कल रात तो,
कुछ ख्वाब भी मारे गए ।
कुछ जो महफूज़ रहे;
हैं वो इतने खौफज़दा,
दुबके रहे - सहमे हुए -
जब पुकारे गए।

Sunday, January 15, 2012

फिर एक दिन...

इस शहर ने जो दिए,
हर दिन नए;
वो नकाब, वो लिबास
यहीं छोड़ के -- घर लौटेगा तू |
अन्जान राहों पे चलता,
थका - हारा - परेशान;
नकाबों - लिबासों
में उलझा हुआ नादान |

खुदको खुदी से ढूँढने;
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |

घंटो - घंटो महफ़िलें सजती थीं;
कूचों में - गलियों में - नुक्कड़ में |
खूब ठिठोली मचती थी;
यारों में - लड़कपन में - हुल्लड़ में |
अब रुकी - फंसी - हंसी में
फंसा हुआ नादान |

उन्ही कमीने दोस्तों पे जान छिड़कने;
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |